*** ग़ज़ल *** *** इक तुम्हीं ही नहीं *** " तुमसे फासले कुछ यूं ही रहेंगे , मुहब्बत के वसूल कुछ यूं ही रहेंगे , वेशक तुम ना मिलना कभी ऐसे में , कहीं तुझे देख के आह भरना कबूल करेंगे , दर्दे-ए-सितम रुसवाई हैं बात पे तन्हाई हैं , यूं होने को बात बेफजूल भी नहीं , ये मलाल फिर कुछ यूं ही ही नहीं , तरीका हम जो भी इख्तियार करें जीने , इस मुतअस्सिर का इक सबब तुम ही नहीं , खाली फलक का चांद जऱा तुम ही नही , जिसे देखते हुए मैं जिता हूं वो फ़ऱाज तुम्हीं ही नहीं , आईने की दस्तूर तो समझूं मैं , तुम्हें देखने का बहाना इक सौ दफा तुम्हीं ही नहीं . " --- रबिन्द्र राम ©Rabindra Kumar Ram *** ग़ज़ल *** *** इक तुम्हीं ही नहीं *** " तुमसे फासले कुछ यूं ही रहेंगे , मुहब्बत के वसूल कुछ यूं ही रहेंगे , वेशक तुम ना मिलना कभी ऐसे में , कहीं तुझे देख के आह भरना कबूल करेंगे , दर्दे-ए-सितम रुसवाई हैं बात पे तन्हाई हैं ,