कच्ची उम्र के कच्चे सपने, स्कूल से घर और घर से स्कूल, और आंखों में परवान चढ़ता प्यार, आज़ादी थी उसे सपने देखने की, धीरे धीरे यौवनता छलक रही थी उसमें, पर वक्त ने साथ ना दिया उसका, भागने का फैसला कर लिया दोनों ने, बड़े शहर के सपने होते हैं बड़े, और धूर्तता भी मिलती है कहीं कहीं, धोखे का एहसास नहीं था उसे, बस वो खोयी हुई थी प्यार में, एक रात महबूब के हाथ का आगोश, और अगले दिन कोठे की दहलीज, उसे विश्वास पर विश्वास ना हुआ कई दिन, रोती रही, बिलखती रही, खाती रही मार, जब तक विश्वास का गला ना घोंट दिया उसने, हर वक्त एक नया मर्द, अब उसकी जिंदगी का सच था यही, आजादी कोठे तक सिमट कर रह गई थी उसकी, कई बार बिस्तर पर पड़ी चादरों की सिलवटों को देखती, और सोचती कसूर अपना, पर अब जीना सीख लिया उसने सिलवटों के साथ, और धर्म निभाती रही ताउम्र, वैश्या होने का !! पेश है एक नई कविता जिसका शीर्षक है :: वैश्या कच्ची उम्र के कच्चे सपने, स्कूल से घर और घर से स्कूल, और आंखों में परवान चढ़ता प्यार, आज़ादी थी उसे सपने देखने की, धीरे धीरे यौवनता छलक रही थी उसमें, पर वक्त ने साथ ना दिया उसका,