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विद्या (ह्रदय) हे परमत्तव अंश ज्ञान(विद्या) क


 विद्या (ह्रदय)
   हे परमत्तव अंश ज्ञान(विद्या) का स्वरूप को बढ़ावा देना ।
  हमारे ह्रदय रुपी भावसागर कि एक क्रिया है।
  हद्रय के कारण ही हमारी उत्पत्ति हुई है।
 हृदय के कारण ही संहार होना तय है ।
  क्योंकि इसी में चार द्वार (वाल) वेदों के
 स्वरूप से देखा व समझा गया है ।
 वेदों का अस्तित्व सर्वप्रथम सरस्वती को दिया गया है।
 मानव शरीर में ये ह्रदय क्रिया सनातन से चली आ रही है। 
हद्रय विद्या का स्पष्टीकरण 
हमारे मुख और कभी -कभी चन्द ,   
  इन्द्रियों के द्वारा भी किया जाता है।
  इस क्रिया को आजकल के संसार के 
कानून भी पकड़ नहीं सकते हैं।
विद्या के मुल स्पष्टीकरण कै ।
  प्रमाण से प्रमाण निकलता है ।
 हर शरीर में वेदों के अमृत ज्ञान के साथ विष भी है।
 हद्रय के विष को ग्रहण करने वाला कोई नहीं है।
  आपके सिवा इस ब्रह्माण्ड में ।
 हद्रय रूपी अमृत को पीने वाले सभी है इस जहां में।
 ज्ञान का स्वरूप हमेशा हृदय से हुआ है ।
 ऐसा नहीं दावा के साथ व पुर्ण विश्वास से कहता हूं ।
 अपनी हाथ की चार अंगुली को लीजिए और 
  हृदय पर रखकर उन्हें कहिए कि सरस्वती के पास कोई 
  डिग्री नहीं है ।
   इस‌ प्रमाण से - इस क्रिया से।
  अब ज्ञान बातें सोचकर ओर बोल कर दिखा ।
  अभी खुद करके देखो आपके ज्ञान रुप ।
   इस क्रिया से कहा चला जाता  है।
   बड़ा  प्रमाण क्या -
  हमारा ज्ञान का ही सर्वोपरि उद्गम का स्त्रोत हृदय ही है।
  ह्रदय में से निकला ही विष हमारा सर्वोपरि विध्वंस है।

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