रोज आंखें मूंदता हूँ तो सोचता हूँ कल कुछ तो राहत हो ही जाएगी निराश होता हूँ जब भी सोचता हूँ अगली सुबह इस धूप की तलाश फिर शुरू होगी और मेरी हर सोच जलेगी फिर दिन भर, फिर आधी सी मूंदी हुई आंखों में खो जाएगी क्यूं राख नहीं होता है सब कुछ एक ही बार में, जैसे कोई लय है कि जिस तरह आदत हो गई है नग्न पड़ी धरती को वियोग की प्रकृति उसी लय में अब सब कुछ झुलसाएगी तरस देखा है जैसे ज़मीं ने खुद की जड़ें खोखली होने का, जड़ से मिटेगा सब पर पहले मुझे भी ये बूंद-बूंद को तरसाएगी प्रकृति और मैं #nojoto#hindi#poem#poetry