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अब अपनों से ज्यादा, गैरों पर एतबार रहता है, गैरों

अब अपनों से ज्यादा, गैरों पर एतबार रहता है,
गैरों से शिकवा कैसी, मुझे अपना ही दर्द देता है।
दर्दे-ग़म बांटने को अक्सर, तलाशे नज़रें हमदर्द को,
नही मिलता अब कोई, जो मिला तमाशबीन लगता है।


ग़मे-दर्द की दिल को, मेरे आदत हो गई है,
ग़मे-दर्द लगता है अब, जिंदगी हो गई है।
कोई अपना बना कर, मुझको ज़ख्म देता है,
कोई मुहब्बत जगा, बस तंहा छोड़ देता है।

©।।दिल की कलम से।। रात की तंहाईयाँ
अब अपनों से ज्यादा, गैरों पर एतबार रहता है,
गैरों से शिकवा कैसी, मुझे अपना ही दर्द देता है।
दर्दे-ग़म बांटने को अक्सर, तलाशे नज़रें हमदर्द को,
नही मिलता अब कोई, जो मिला तमाशबीन लगता है।


ग़मे-दर्द की दिल को, मेरे आदत हो गई है,
ग़मे-दर्द लगता है अब, जिंदगी हो गई है।
कोई अपना बना कर, मुझको ज़ख्म देता है,
कोई मुहब्बत जगा, बस तंहा छोड़ देता है।

©।।दिल की कलम से।। रात की तंहाईयाँ