|| श्री हरि: ||
26 - सेवा
इस कन्हाई की सेवा ही सबसे अटपटा काम है। इसने तो जैसे छठी में से सीखा है कि सेवा इसी को करनी है - सबकी करनी है और इसकी सेवा करने का प्रयत्न करो तो ऐसे टरका देता है कि मत पूछो बात। धर-पकड कर इसकी सेवा करनी पड़ती है।
नन्हा था तब से बाबा के कहने से पूर्व उनके वस्त्र लोटा या लकुट अथवा दोहनी सिर पर रख कर उसके पास पहुंचता था - 'बाबा! तुम स्नान करोगे? पूजा करोगे? गोचारण को जाओगे। गाय दुहोगे?' जब इसे जो सूझ जाय तब मानो बाबा को वही करना है।
कोई ऋषि-मुनि या ब्राह्माण भवन में पधारें तो उनकी पादुका मस्तक पर रखकर दोनों करों से पकड़ कर उनके सम्मुख ले जाकर तब रखने लगा था, जब चल भी कठिनाई से पाता था और गोपियां तो तभी से इससे सेवा लेने लगीं। किसी को वेणी में पुष्प लगवाना हो तो कन्हाई लगावे और गोबर उठवाना हो तो कन्हाई उठवावे। जल की कलशी उठवानी, बछडा पकड़वाना, गोदोहन के पश्चात दूध घर पहुचाना - पता नहीं किसके यहाँ क्या-क्या सेवा इसी के लिए रुकी रहा करती थी।