किसी भी आदमी में अब कोई ग़ैरत नहीं है; अपनी हद में रहने को सभी क़ानून ढूँढ़ते हैं। अपनी वहशतों पर अब किसी को संयम नहीं है; स्त्रीगंध में बौराये, नोचने को देह; नाख़ून ढूँढ़ते हैं। बेखौफ़ हैं वहशी दरिंदे; यहाँ आदमी की शक्ल में, सृष्टि के आधार में जो, मादक देह और खून ढूँढते हैं। मोमबत्तियों की रौशनी में, आग अब मिलती कहाँ है ; भेड़ियों के अंत को रग़ों में, पुरुषार्थ का जूनून ढूँढ़ते हैं। क्या बचाएगा कोई क़ानून, किसी अबला की अस्मत को; अब आदमी की परवरिश में, संस्कारों के मज़मून ढूँढ़ते हैं। कोई सत्ता, कोई क़ानून, ज़हनियत को रोकती कब है; मरी हुई संवेदनाओं हम, केवल ढोंग का सुकून ढूँढ़ते हैं। बेमानी है ये मीडिया, ख़बरों, नेताओं को यूँ कोसते रहना; असभ्य हो गए हैं हम और इन मुर्दों में नाख़ून ढूँढ़ते हैं। #वहशत