Nojoto: Largest Storytelling Platform

लिखने बैठा जब मैं खुद पे, कुछ भी न मैं लिख पाया। ब

लिखने बैठा जब मैं खुद पे, कुछ भी न मैं लिख पाया।
बरसात हुई ऐसी आंखो से, मुझे न कुछ भी दिख पाया।
जीने को तो सब जीते हैं, जीना भी मजबूरी है।
दर्द छिपाए सीने में, हंसना भी बहुत जरूरी है।
दुनियां में रहते हुए भी मैं, दुनियां जैसा बन पाया।
लिखने बैठा जब मैं...।
अरमान अधूरे सिसक रहे,दिल भी मायूस हुआ मुझसे।
जो भी चाहा वो मिला नहीं,तन्हाई आन मिली मुझसे।
जीवन बीत गया ऐसे ही, सूनापन ना भर पाया।
लिखने बैठा जब मैं...।

©नागेंद्र किशोर सिंह ( मोतिहारी, बिहार।)
  # लिखने जब खुद पे बैठा।