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नासमझ इश्क़ निहारता रहा, आईने में ख़ुद को सँवारता र

 नासमझ इश्क़ निहारता रहा,
आईने में ख़ुद को सँवारता रहा..!

दिल के टुकड़े बढ़ते दुखड़े,
ख़ुदा ख़ुदा पुकारता रहा..!

ज़िन्दगी जहान पहुँची श्मशान,
अपमान के कीचड़ में ख़ुद को उतारता रहा..!

क्या मिला अधिक अच्छा बन के,
गहनता से सोचता विचारता रहा..!

ख़्वाबों का खण्डहर ज़हन के अंदर,
अपशब्दों को उच्चारता रहा..!

नई पुरानी बीती ज़िन्दगानी में,
ख़्वाहिशों को प्रतिदिन मारता रहा..!

जीत सकता था मैं भी मोहब्बत,
पर जबरदस्ती का इश्क़ जानबूझ कर हारता रहा..!

©SHIVA KANT(Shayar)
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