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नाविक रोज ! सवेरे उठकर , किनारे की ओर ;

नाविक

रोज  !  सवेरे   उठकर  , किनारे   की   ओर ;  भगता  हूँ

अपनी  मंजिल  , अपने  मकसद  का ;  ख्याल  रखता हूँ

नहीं थकता मैं , राह के राहगीरों को  ;आते जाते ले जाते 

तुम्हें क्या मालूम मैं इस दरमियाँ जीत का स्वाद चखता हूँ

कवि अजय जयहरि कीर्तिप्रद नाविक.... कीर्तिप्रद
नाविक

रोज  !  सवेरे   उठकर  , किनारे   की   ओर ;  भगता  हूँ

अपनी  मंजिल  , अपने  मकसद  का ;  ख्याल  रखता हूँ

नहीं थकता मैं , राह के राहगीरों को  ;आते जाते ले जाते 

तुम्हें क्या मालूम मैं इस दरमियाँ जीत का स्वाद चखता हूँ

कवि अजय जयहरि कीर्तिप्रद नाविक.... कीर्तिप्रद