नाविक रोज ! सवेरे उठकर , किनारे की ओर ; भगता हूँ अपनी मंजिल , अपने मकसद का ; ख्याल रखता हूँ नहीं थकता मैं , राह के राहगीरों को ;आते जाते ले जाते तुम्हें क्या मालूम मैं इस दरमियाँ जीत का स्वाद चखता हूँ कवि अजय जयहरि कीर्तिप्रद नाविक.... कीर्तिप्रद