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स्त्री ! कविताओं गजलो में परोसी गयी व्यं

स्त्री !         
कविताओं गजलो में 
परोसी गयी व्यंजन !
दीवारों में कुरेद कुरेद 
बनाया गया तन !
कभी मूर्ति कार की 
बनी कल्पना 
कभी चित्रों मे बनी 
चित्रकार का सपना 
स्त्री !
जिसके बिना 
सृष्टि अधूरी है!
जो जन्मती है 
पुरुषत्व को !
वही चौड़े कंधे 
अस्थि मज्जा को 
निचोड़ कर 
बडे़ होते हैं 
रौंदने के लिये 
स्त्रीत्व को !
हर बार ठगी गयी 
पर नेह के धागे 
नही टूटे !
हर बार कलंकित हुई 
पर दुःख नहीं बांटे !
कौन सी मिट्टी की बनी 
स्त्री !
ढांप देती है 
हर वो गलती 
हर वो वहशीपन 
जो उसके साथ होता है !
बन जाती है 
किरदार !
किसी की कविताओं में 
किसी की कहानियों में 
जिन्दा रहने के लिए। स्त्री
स्त्री !         
कविताओं गजलो में 
परोसी गयी व्यंजन !
दीवारों में कुरेद कुरेद 
बनाया गया तन !
कभी मूर्ति कार की 
बनी कल्पना 
कभी चित्रों मे बनी 
चित्रकार का सपना 
स्त्री !
जिसके बिना 
सृष्टि अधूरी है!
जो जन्मती है 
पुरुषत्व को !
वही चौड़े कंधे 
अस्थि मज्जा को 
निचोड़ कर 
बडे़ होते हैं 
रौंदने के लिये 
स्त्रीत्व को !
हर बार ठगी गयी 
पर नेह के धागे 
नही टूटे !
हर बार कलंकित हुई 
पर दुःख नहीं बांटे !
कौन सी मिट्टी की बनी 
स्त्री !
ढांप देती है 
हर वो गलती 
हर वो वहशीपन 
जो उसके साथ होता है !
बन जाती है 
किरदार !
किसी की कविताओं में 
किसी की कहानियों में 
जिन्दा रहने के लिए। स्त्री