स्त्री ! कविताओं गजलो में परोसी गयी व्यंजन ! दीवारों में कुरेद कुरेद बनाया गया तन ! कभी मूर्ति कार की बनी कल्पना कभी चित्रों मे बनी चित्रकार का सपना स्त्री ! जिसके बिना सृष्टि अधूरी है! जो जन्मती है पुरुषत्व को ! वही चौड़े कंधे अस्थि मज्जा को निचोड़ कर बडे़ होते हैं रौंदने के लिये स्त्रीत्व को ! हर बार ठगी गयी पर नेह के धागे नही टूटे ! हर बार कलंकित हुई पर दुःख नहीं बांटे ! कौन सी मिट्टी की बनी स्त्री ! ढांप देती है हर वो गलती हर वो वहशीपन जो उसके साथ होता है ! बन जाती है किरदार ! किसी की कविताओं में किसी की कहानियों में जिन्दा रहने के लिए। स्त्री