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रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। नव तुलसिका बृंद

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥

लंका निसिचर निकर निवासा। 
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। 
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। 
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। 
साधु ते होइ न कारज हानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। 
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। 
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। 
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। 
आयहु मोहि करन बड़भागी॥ चौपाई 
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

भावार्थ:-लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥

लंका निसिचर निकर निवासा। 
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। 
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। 
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। 
साधु ते होइ न कारज हानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। 
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। 
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। 
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। 
आयहु मोहि करन बड़भागी॥ चौपाई 
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

भावार्थ:-लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥