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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12 ।।श्री ह

|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12

।।श्री हरिः।।
7 - निष्ठा की विजय

'मैं महाशिल्पी को बलात्‌ अवरुद्ध करने का साहस नहीं कर सकता।' स्वरों में नम्रता थी और वह दीर्घकाय सुगठित शरीर भव्य पुरुष सैनिक वेश में भी सौजन्य की मूर्ति प्रतीत हो रहा था। वह समभ नहीं पा रहा था कि आज इस कलाकार को कैसे समभावें। 'मेरे अन्वेषक पोतों ने समाचार दिया है कि प्रवाल द्वीपों के समीप दस्यु-नौकाओं के समूह एकत्र हो रहे हैं। ये आरब्य म्लेच्छ दस्यु कितने नृशंस हैं, यह श्रीमान से अविदित नहीं है और महाशिल्पी सौराष्ट्र के गौरव-ध्वज हैं। उनकी रक्षा सौराष्ट्र के 'रा' (महाराज) से भी अधिक महत्वपूर्ण है।' दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया उस शूर ने। नेतन्रो में जल आ गया था और उसका प्रशस्त भाल सूचित कर रहा था कि वह केवल आदरणीय के सम्मुख ही झुकना जानता है। दर्प एवं औद्धत्य के लिए वह सदा दुर्दमनीय है।

'मैं सिन्धुवाहिनी के महासेनापति की कठिनाई समझता हूँ। एक वृद्ध हस्तिदन्त के आसन पर पारसीक सुकोमल आस्तरण पर शान्त बैठे थे। उनका शरीर दुर्बल था। झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। मस्तक के साथ श्मश्रु एवं रोम तक श्वेत हो चुके थे। केवल भुजाओं के पुठ्ठे सुदृढ़ थे और नेत्रों में एक अद्भुत ज्योति थी। अपने श्वेत वस्त्रों में महाशिल्पी सोमकेतु किसी ऋषि के समान प्रतीत हो रहे थे। उनका गौरवर्ण इतना उज्जवल था मानो कला एवं प्रतिभा की हृदयस्थ अधिष्ठात्री का प्रकाश बाहर फूट पड़ा हो। उनके भाल पर न चिन्ता थी और न व्यग्रता। स्थिर शान्त मुद्रा से सम्मुख खड़े जल-सेनापति को वे समभा रहे थे - 'लेकिन महासेनापति को मेरी विवशता अनुभव करनी चाहिए। मैं भगवान विश्वनाथ के आह्वान की उपेक्षा नहीं कर सकता। किसी भी भय से नहीं। वे महाकाल जो चाहेंगे, वही होगा।' शिल्पी ने हाथ जोड़कर श्रद्धा से मस्तक भुका लिया
anilsiwach0057

Anil Siwach

New Creator

|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12 ।।श्री हरिः।। 7 - निष्ठा की विजय 'मैं महाशिल्पी को बलात्‌ अवरुद्ध करने का साहस नहीं कर सकता।' स्वरों में नम्रता थी और वह दीर्घकाय सुगठित शरीर भव्य पुरुष सैनिक वेश में भी सौजन्य की मूर्ति प्रतीत हो रहा था। वह समभ नहीं पा रहा था कि आज इस कलाकार को कैसे समभावें। 'मेरे अन्वेषक पोतों ने समाचार दिया है कि प्रवाल द्वीपों के समीप दस्यु-नौकाओं के समूह एकत्र हो रहे हैं। ये आरब्य म्लेच्छ दस्यु कितने नृशंस हैं, यह श्रीमान से अविदित नहीं है और महाशिल्पी सौराष्ट्र के गौरव-ध्वज हैं। उनकी रक्षा सौराष्ट्र के 'रा' (महाराज) से भी अधिक महत्वपूर्ण है।' दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया उस शूर ने। नेतन्रो में जल आ गया था और उसका प्रशस्त भाल सूचित कर रहा था कि वह केवल आदरणीय के सम्मुख ही झुकना जानता है। दर्प एवं औद्धत्य के लिए वह सदा दुर्दमनीय है। 'मैं सिन्धुवाहिनी के महासेनापति की कठिनाई समझता हूँ। एक वृद्ध हस्तिदन्त के आसन पर पारसीक सुकोमल आस्तरण पर शान्त बैठे थे। उनका शरीर दुर्बल था। झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। मस्तक के साथ श्मश्रु एवं रोम तक श्वेत हो चुके थे। केवल भुजाओं के पुठ्ठे सुदृढ़ थे और नेत्रों में एक अद्भुत ज्योति थी। अपने श्वेत वस्त्रों में महाशिल्पी सोमकेतु किसी ऋषि के समान प्रतीत हो रहे थे। उनका गौरवर्ण इतना उज्जवल था मानो कला एवं प्रतिभा की हृदयस्थ अधिष्ठात्री का प्रकाश बाहर फूट पड़ा हो। उनके भाल पर न चिन्ता थी और न व्यग्रता। स्थिर शान्त मुद्रा से सम्मुख खड़े जल-सेनापति को वे समभा रहे थे - 'लेकिन महासेनापति को मेरी विवशता अनुभव करनी चाहिए। मैं भगवान विश्वनाथ के आह्वान की उपेक्षा नहीं कर सकता। किसी भी भय से नहीं। वे महाकाल जो चाहेंगे, वही होगा।' शिल्पी ने हाथ जोड़कर श्रद्धा से मस्तक भुका लिया

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