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सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, 
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; 
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, 
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, 
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे 
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

©Jorwal #Dinkar  Rakesh Srivastava  Santosh Narwar Aligarh (9058141336)  Praveen Storyteller  kiran kee kalam se  dream SgR…
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, 
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; 
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, 
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, 
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे 
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

©Jorwal #Dinkar  Rakesh Srivastava  Santosh Narwar Aligarh (9058141336)  Praveen Storyteller  kiran kee kalam se  dream SgR…
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