हर एक नियत बदलने में लगी है ये दुनिया तेज़ चलने में लगी है रूह अपनी किसी कोने में रखकर जिस्म से आशिक़ी होने लगी है ना जाने चल रहा है दौर कैसा जलन बिन आग के होने लगी है ढहने को चली है एक इमारत तो कोई अब भी बनने में लगी है याद रह जाती है वो बात अक्सर हो जैसी भी मगर दिल में लगी है क्या ईमान-धरम क्या ही वफ़ा यहाँ हर चीज़ की बोली लगी है क्यों हो बेचैन ज़रा सा सब्र रखो वहाँ हर एक कि अर्ज़ी लगी है हर एक नियत बदलने में लगी है ये दुनिया तेज़ चलने में लगी है रूह अपनी किसी कोने में रखकर जिस्म से आशिक़ी होने लगी है ना जाने चल रहा है दौर कैसा जलन बिन आग के होने लगी है