।।श्री हरिः।।
37 - कनूँ कहाँ है?
अचानक भद्र चौक्के गया - 'कनूँ कहाँ है?' यह कन्हाई दो क्षण न दीखे तो गोपकुमारों के प्राण छटपटाने लगते हैं। कृष्ण थोडी दूर नहीं चला जाय तो सब दौड़ते हैं होड़ लगाकर कि कौन पहिले नन्दलाल को स्पर्श करेगा। किंन्तु इस समय भद्र अपनी - अपने ह्रदय की व्याकुलता नहीं सोचता। भद्र चिन्तित्त हो उठा है कृष्ण के लियेय़
कन्हाई बहुत चपल है। वृक्षपर चढेगा, तो पतली शाखा पर भी चढने में¸हिचकता नहीं। दौड़ेगा तो नीचे देखेगा ही नहीं कि भूमि पर कुश, कण्टक, गड्ढे क्या हैं। जल में उतरेगा तो गहरे-छिछले का इसे पता नहीं और कोई पुष्प या फल इसे रूचे तो उसके आस-पास कण्टक भी हैं, इस पर तनिक कभी ध्यान नहीं देता। इसकी तो बराबर सम्भाल-चिन्ता रखनी पड़ती है। इस समय यह कहाँ चला गया।
'कनूँ कहाँ है?' भद्र ने अचानक खेल छोड़ा और सीधा खड़ा हो गया। इधर-उधर देखने लगा। अभी तो कन्हाई यहीं साथ ही खेल रहा था, अब क्षण भर में चला कहाँ गया? कहाँ अदृश्य हो गया। कोई ऊधम न कर ले। कहीं कोई चोट-खरोंच या और कोई पीडडा न ले ले। भद्र इस आशंका से आकुल होकर सिर उठाकर इधर-उधर देख रहा है।