छोटी-छोटी बातों पे लड़ना-झगड़ना। क्या खूब थीं वो, शैतानियाँ बचपन की। खुद से ही रूठना, खुद को ही मनाना। ऐसी थीं वो, मनमानियाँ बचपन की। हर बात ज़ेहन में आ जाती हैं जब, याद आती हैं निशानियाँ बचपन की। दोस्त की चीज़ पे अपना हक़ ज़माना। ऐसी थीं वो, नादानियाँ बचपन की। आज भी मन रुआँसा हो जाता है जब, याद आती हैं कहानियाँ बचपन की। ♥️ Challenge-594 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें :) ♥️ विषय को अपने शब्दों से सजाइए। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।