मुर्गे सा बांग मैं देता हूँ।। मुर्गे सा बांग मैं देता हूँ। पर सत्य टांग मैं देता हूँ। मर्यादा होती धूमिल रही, बरबस लांघ मैं देता हूँ। अन्तरबल मेरा क्षीण रहा, और ताल जांघ मैं देता हूँ। जहां दरवेशों की भीड़ रही, बेहिसाब मांग मैं देता हूँ। अवधारण ही जो धारित था, जमा पांव छलांग मैं देता हूँ। थोथी दलीलें बहुरूपिये, और एक स्वांग मैं देता हूँ। दरबारी जो इतिहास रहा, एक अवशेषांग मैं देता हूँ। जीवित रहे बस तान भृकुटि, दण्डवत शाष्टांग मैं देता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" मुर्गे सा बांग मैं देता हूँ।। मुर्गे सा बांग मैं देता हूँ। पर सत्य टांग मैं देता हूँ। मर्यादा होती धूमिल रही, बरबस लांघ मैं देता हूँ।