खो जाता है वो अक्सर चकाचौंध भरे शहरों में, पर वक़्त बेवक्त अपने पहाड़ लौट ही आता है।चाहे मिनरल वॉटर की पूरी बोतल गटक जाता है,प्यास तो उसकी गाढ़ गधेरों का पानी ही बुझाता है। शहरों की ऊंची बालकनी से वो सारा नज़ारा देख लेता है।सुकून तो उसे अपने छज्जे पर बैठकर ही आता है। भरी महफिलों से ख़ामोश ही लौट आता है, उस तो बस पहाड़ों का बखान ही भाता है।हो जाए वो मृतप्राय गैरों की गलियों में गर, उसे मुर्दा ना समझना साब उसका पहाड़ सदा उसमें जिन्दा रहता है। एक पहाड़ी की कलम से।