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घटते-बढ़ते रिश्तों के दायरे अक्सर खामोशी बिखेर देत

घटते-बढ़ते रिश्तों के दायरे अक्सर खामोशी बिखेर देते है। ऐसी खामोशी जो अक्सर आपको आपके पास छोड़ जाती है।रिश्तों का ये दायरा अक्सर इंसान के द्वारा बनाये गये उत्क्रम से ही बनता होता है जो वक्त, परिस्थितियों, सहुलियत और जरूरत के अनुसार बनता-बिगड़ता रहता है। ये उत्क्रम सामान्यतः मानवीय संवेदनाओं को कुचलने की काबिलियत रखता है। ये उत्क्रम अक्सर ऐसी आदत को परिपक्व करता है जो इन रिश्तों के घटते-बढ़ते घेराव से भाग जाने में मददगार होता है। जगहों से, हालातों से, लोगों से और ज्यादातर खुद से भाग जाने की प्रक्रिया को ओर तेज कर देता है। खामोशी आज भी है जो पहले से ज्यादा बेनाम, बेहिसाब, गहरी, मजबूत है लेकिन कम मजबूर और कुछ कम खुदगर्ज है। अधूरी सच्चाई और हकीकत से परे ये पारभासी रिश्तों के घटते-बढ़ते दायरें आजकल कठोर पैमानों की कशमकश से गुजर रहे है और खामोशी को ओर ज्यादा गहरा  कर रहे है।

©radha jatav #डायरी_के-पन्नों_से

#LastDay
घटते-बढ़ते रिश्तों के दायरे अक्सर खामोशी बिखेर देते है। ऐसी खामोशी जो अक्सर आपको आपके पास छोड़ जाती है।रिश्तों का ये दायरा अक्सर इंसान के द्वारा बनाये गये उत्क्रम से ही बनता होता है जो वक्त, परिस्थितियों, सहुलियत और जरूरत के अनुसार बनता-बिगड़ता रहता है। ये उत्क्रम सामान्यतः मानवीय संवेदनाओं को कुचलने की काबिलियत रखता है। ये उत्क्रम अक्सर ऐसी आदत को परिपक्व करता है जो इन रिश्तों के घटते-बढ़ते घेराव से भाग जाने में मददगार होता है। जगहों से, हालातों से, लोगों से और ज्यादातर खुद से भाग जाने की प्रक्रिया को ओर तेज कर देता है। खामोशी आज भी है जो पहले से ज्यादा बेनाम, बेहिसाब, गहरी, मजबूत है लेकिन कम मजबूर और कुछ कम खुदगर्ज है। अधूरी सच्चाई और हकीकत से परे ये पारभासी रिश्तों के घटते-बढ़ते दायरें आजकल कठोर पैमानों की कशमकश से गुजर रहे है और खामोशी को ओर ज्यादा गहरा  कर रहे है।

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Anuradha

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