संवेदना - हीन होता समाज, हो रहा निरंतर पतनोन्मुख। निज हिताय अवलोक्य मनुज, बन रहा दनुज पातक दुर्मुख। भावी पीढ़ी का हश्र सोच, उद्वेलित अंतर्मन अर्जुन, यह प्रश्न विकट त्रैलोक्य-पति! है विचारार्थ तेरे सम्मुख। अरुण शुक्ल 'अर्जुन' प्रयागराज Pàñdéy Àñuràg