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क्यूँ उलझाता हैं? अदृश्य, अंधेरो में पड़ें अनिश्चि

क्यूँ उलझाता हैं? अदृश्य, अंधेरो में पड़ें अनिश्चित भविष्य के जीवन को।
रे मन, तू भी चल कभी अतीत के दर्शन क़ो।।

नन्हा कदम थक कर,निद्रा-वश जब ढूँढता तेरा आँचल।
तू कहती ठहर जा, पहले कुछ खाने को चल।।
नींद से भरी आँखों को, जब मिल जाता तेरी गोद।
आँखें भी तभी खुलती थीं , जब हो जाता था भोर।।

चाहत यही फिर, मिलें गोद तेरा, मिले वहीं मिट्टी , मिले वही सवेरा।
हैं मेरी ये स्मृति, जिया है मैंने जिस जीवन क़ो।
रे मन, तू भी कभी चल अतीत के दर्शन को।। #Nature क्यूँ उलझाता हैं? अदृश्य, अंधेरो में पड़ें अनिश्चित भविष्य के जीवन को।
रे मन, तू भी चल कभी अतीत के दर्शन क़ो।।

वो बचपन, वो आँगन,

नन्हा कदम थक कर,निद्रा-वश जब ढूँढता तेरा आँचल।
तू कहती ठहर जा, पहले कुछ खाने
क्यूँ उलझाता हैं? अदृश्य, अंधेरो में पड़ें अनिश्चित भविष्य के जीवन को।
रे मन, तू भी चल कभी अतीत के दर्शन क़ो।।

नन्हा कदम थक कर,निद्रा-वश जब ढूँढता तेरा आँचल।
तू कहती ठहर जा, पहले कुछ खाने को चल।।
नींद से भरी आँखों को, जब मिल जाता तेरी गोद।
आँखें भी तभी खुलती थीं , जब हो जाता था भोर।।

चाहत यही फिर, मिलें गोद तेरा, मिले वहीं मिट्टी , मिले वही सवेरा।
हैं मेरी ये स्मृति, जिया है मैंने जिस जीवन क़ो।
रे मन, तू भी कभी चल अतीत के दर्शन को।। #Nature क्यूँ उलझाता हैं? अदृश्य, अंधेरो में पड़ें अनिश्चित भविष्य के जीवन को।
रे मन, तू भी चल कभी अतीत के दर्शन क़ो।।

वो बचपन, वो आँगन,

नन्हा कदम थक कर,निद्रा-वश जब ढूँढता तेरा आँचल।
तू कहती ठहर जा, पहले कुछ खाने