अनकहे शब्दों का बोझ.... कब तक भागूं मैं.... किस किस से भागूं.... कहां तक भागूं मैं.... आखिर गुनाह क्या है मेरा.... यह भी जरूरी है समझना.... क्या यही हल है "भागना".... दिल कहता है कर लूं "सामना"..... कितना सही है खुद को "छलना".... क्या हुआ जिंदगी चाहे जो "खेलना".... मान लूं क्या वक्त का है जो "कहना".... आखिर कब तक मर मर यूं ही "जीना".... आता जो नहीं है ना मुखौटा "पहनना".... है तन्हाई में "रोना" और महफ़िल में "हंसना".... अब तक समझ ना आया जिंदगी क्या चाहती है "कहना".... -पूर्णिमा की कलम ✍️ ©Purnima vighnajeet #sad #Life #OwnQuotes #purnima_vighnajeet