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तेरी आरज़ू तेरी ज़ुस्तज़ू में ही हर पल अब मरती हूँ मै

तेरी आरज़ू तेरी ज़ुस्तज़ू में ही हर पल अब मरती हूँ मैं
ये भी क्या कम है तेरे ही बिना तुझमें भटकती हूँ मैं।

कोई क़तरा धूप का मेरे भी हिस्से आएगा एक दिन
ये सोचकर सहर होते ही राहों पर निकलती हूँ मैं।

बीनाई ने मेरी तोड़ दिए दीदा-ए-तर से मिरे सारे रिश्ते
जाने किस को देखने के लिए रातों को विचरती हूँ मैं।

चाँद को तेरा अक़्स समझकर सारी रात देखती हूँ उसे
जिंदा रहने के लिए अब तेरे नाम की माला जपती हूँ मैं।

तिरे हिस्से का इश्क़ तुझे मिले यही हसरत है अब मिरी
यही सोच के अपने इश्क़ के वज़ूद से रोज़ाना लड़ती हुँ मैं।

ख़्वाब देखे थे कभी जो खुशबू की रात के मिरी नज़रों ने
अपने ही कदमों तले सारे ग़ुलाबी ख़्वाब कुचलती हूँ मैं।

©Arpan@
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