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हुकूमत की नज़र में थीं बग़ावती नज़रें बे-ख़ौफ़ चली

हुकूमत की नज़र में थीं बग़ावती नज़रें
बे-ख़ौफ़ चली भीड़ जिसपे रस्ता वही सुनसान हुआ

था आग़ोश में पानी मगर छोड़ दिया जलने को 
दरिया भला रेत पे कब मेहरबान हुआ

इक पल में छीन ली ज़लज़ले ने ज़ौ दिये की 
घर अभी रौशन था अभी अंधा मकान हुआ

मुंसिफ़ बदल गये मगर मुक़दमा नही सुलझा
झूठ की आग में सच हर बार श्मशान हुआ..।


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©एक अजनबी
  #मुंसिफ़ :-  जज, न्याय करने वाला

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