कितने बेबस,बेसहारे हैं हम हां.....वक़्त के मारे हैं हम इक वबा ने छीन ली खुशियां सारी और हालात से अपने हारे हैं हम खा रहे हैं ठोकरें दर- दर की - साहिल के डूबते किनारे हैं हम ऐ वक़्त ज़रा ठहर जा मेरे वास्ते तेरे ही जानिब बने बंजारे हैं हम जमाना लिख रहा है शौक से किस्से मेरे रिसालों के दिलकश नज़ारे हैं हम वो सियासत भी खामोश हो गई रहे जिनके लिए सस्ते चारे हैं हम -मोहम्मद मुमताज़ हसन #कविता#बेबस जिंदगी