रिश्तों की हेरा- फेरी जहाँ जुड़ते ही तोड़ दी अपनों ने दोस्ती रिश्तों को भी रास आई रिश्वत की रोकड़ी बंधते ही बाँध दी गयी चुप्पी से इसकी डोरी कहा उसने खुली ज़ुबान तो पड़ी रहेगी टूटी ही वो तो बस दिखने में थी जैसे माले की मोती वैसे खुद को हरदम बस दर्द में रही पिरोती रिश्तों की वो बिखरी उलझी लपटी सुतरी टूटकर भी उस टूटते माले को रही गुथती थी तो वो पहले से ही हर दायरों से रूठी हुई और मैं सोंचती रही क्या हमसे कोई त्रुटि हुई खुद्दारी हुई खफा पर लगा दरारें तो भर सकेंगे पर पता न था वो इसका भी कर वसुलेंगे फिर भी बदलती रही खुद को उनके लिए पर अब ज्ञात नहीं मैंने जिया किसके लिए आज रिश्तों के नाम पर है बस अदला -बदली क्यूँ अब तक पर्दों में मर्दों वाली रीत न बदली न जानूँ सहनशाक्ति की ये परीक्षा है मेरी या पीठ पीछे उनकी कोई चाल है गहरी कहता है वक़्त अब न डर,तु देर न कर फ़ासले तु कर या कुछ फैसले ही कर समझ न आये ये उलझन ये पहली इसे अब क्या समझूँ,गंभीरता से इसे लूँ या समझूँ इसे कोई हँसी -ठिठोली? ©Deepali Singh रिश्तों की हेरा- फेरी