मुक़द्दर-ए-ज़िन्दगी में तू नहीं शायद फ़िर क्यों ख़ुद को इतना सताता हूँ मैं?। बिखरे हुए लफ्ज़, ग़मगीन आवाज़, रोता हुआ दिल फ़िर भी हर घड़ी तुझे सोचकर मुस्कराता हूँ मैं। 'ग़ज़ल का कुछ हिस्सा' ज़िंदगी अज़ीब होती है, हैं ना? वह शख्स जो खुद को दुनिया की लीक से अलग करना चाहता था, जो सोचता था कि उसकी जिंदगी उसके control में है वह आज प्यार के गीत, नग़मे और उदासी भरी ग़ज़लों से अपनी डायरी भर देता है, जिसका साहित्य और श्रृंगार में कोई interest नहीं था उसका पहला हिंदी उपन्यास 'गुनाहों का देवता' है...मैं कभी-2 सोचता हूँ कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ? तब मुझे लगता है कि वह दुनिया को उस ढंग से ना समझ पाया जैसे बाकी लोग समझते हैं, शायद वो मासूम है या शायद वो उस मासूमियत से बाहर ही नही