कौन हूँ , क्या हूँ , कहाँ हूँ , कैसी हूँ , क्या फ़र्क पड़ता हैं ; . . जिस रास्ते पे निकली थीं खुद की तलाश में , वो रास्ता छोटा और सरल ही हो ऐसा जरुरी तो नहीं हैं //- मेरा डर कभी-कभी मुझमे इस क़दर घर कर जाता हैं उस वक़्त मुझे उजाले में भी अंधकार सा नज़र आता है । जो मुझे मिला भी नहीं अभी तक मेरा दिल उसे भी खोने से घबराता है , मेरा डर मेरी तक़्लीफो का अंदाजा कहा लगा पाता है । चीखती हूँ , चिल्लाती हूँ , रोती हूँ , लेकिन मेरे डर को मेरे अयाल पर तरस कहा आता है । सोचती हूँ के क्या किया जा सकता हैं , क्या ऐसे ही डर के साथ जिया जा सकता है ? बंद कमरे में , बत्तियां बुझा कर , खुद में , सवालों में , क्या उस अन्दर के शौर से लड़ा जा सकता है ?