"वो पहली साड़ी" कभी खरीदी नहीं, ना मांगी किसी से, माँ की थी मिल गई आसानी से। बचपन से ख़्वाब देखती थी पहनने का, माँ की साड़ी में खुद को समेटने का। मौका जो मिलता था उठा लाती थी, शीशे के आगे यू खड़ी हो जाती थी, पहननी न आती थी फिर भी अपने नन्हें हाथों से कोशिश में जुट जाती थी, समझ न आती थी तो युही उसमें लिपट जाती थी। कभी माँ डांट लगाती तो कभी प्यार से पहनाती थी, मुझें साड़ी में देख उसकी आँखें भी झलक जाती थी। बड़ी जब हुई तो कोई साड़ी खरीदी नहीं वो पहली साड़ी माँ की ही पहनी थी। "लग रही हो बिल्कुल "माँ" जैसी" ऐसा सबने बोला था, आँखों का तारा हो, पापा ने भी टोका था। "सुंदर सी, प्यारी सी गुड़िया बड़ी हुई", ये कह कर माँ ने नज़र मेरी उतारी थी। आज भी पहन लेती हूं अलमारी से निकाल कर पर माँ टोकती नहीं हैं, पहनने से रोकती नहीं हैं जो होती वो तो प्यार से गले लगा लेती, मेरी सारी बलाए भी उतार लेती। आज भी संभाल कर रक्खी हैं वो पहली साड़ी और हर साड़ी माँ की यादें बसी हैं उनमें माँ की ढेर सारी।। -Naina Arora "वो पहली साड़ी" कभी खरीदी नहीं, ना मांगी किसी से, माँ की थी मिल गई आसानी से। बचपन से ख़्वाब देखती थी पहनने का, माँ की साड़ी में खुद को समेटने का। मौका जो मिलता था उठा लाती थी,