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मुर्दों का शहर... क्या आये थे करने, क्या करने लगे

मुर्दों का शहर...
क्या  आये थे करने, क्या करने लगे हैं,
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।

घायल है कोई लथफ्त ,सड़क पे पड़ा है,
भूखा है कोई अधनंगा, सड़क पे खड़ा है।

अपने बदन का जनाजा उठाये,
लोग चुपचाप आगे बढ़ने लगे हैं,
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।

सबको यहां, अपनी -अपनी पड़ी है,
देखो कहाँ आके दुनिया खड़ी है।

अपने ही लालच की गठरी सजाये ,
अपने बदन का जनाजा उठाये,
कामनाओं की दलदल में धंसने लगे हैं।
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।

 घायल हो ग़र तो बचा कर के रहना,
अगर दिलजले हो छुपा कर के रखना,
लोग नमक की पुड़िया दबा कर चले हैं,
जुबां में ही खंजर लगा कर चले हैं।
लोग बातों से अब जख़्मी करने लगे हैं 
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।
क्या आये थे करने, क्या करने लगे हैँ।
मन की कलम से.....

©Ganesh Kumar Verma  मुर्दों का शहर
मुर्दों का शहर...
क्या  आये थे करने, क्या करने लगे हैं,
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।

घायल है कोई लथफ्त ,सड़क पे पड़ा है,
भूखा है कोई अधनंगा, सड़क पे खड़ा है।

अपने बदन का जनाजा उठाये,
लोग चुपचाप आगे बढ़ने लगे हैं,
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।

सबको यहां, अपनी -अपनी पड़ी है,
देखो कहाँ आके दुनिया खड़ी है।

अपने ही लालच की गठरी सजाये ,
अपने बदन का जनाजा उठाये,
कामनाओं की दलदल में धंसने लगे हैं।
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।

 घायल हो ग़र तो बचा कर के रहना,
अगर दिलजले हो छुपा कर के रखना,
लोग नमक की पुड़िया दबा कर चले हैं,
जुबां में ही खंजर लगा कर चले हैं।
लोग बातों से अब जख़्मी करने लगे हैं 
जिन्दा हीं कब थे, जो मरने लगे हैं।
क्या आये थे करने, क्या करने लगे हैँ।
मन की कलम से.....

©Ganesh Kumar Verma  मुर्दों का शहर