***भटकते राही*** मध्य रह जो दूसरों के, पर सदा अपनत्व कमाते । जाने के पश्चात वे जन, इस जहां को याद आते । क्या मिला हमको यहां, मर मार के लड़के लड़ाके । हमने भी देखे सिकंदर, कई खाली हाथ जाते । तज गुलामी मन के स्वामी, विश्व पर इक छाप छोड़ो । शिक्षा पा नौकर बन जाने, का यह अभिशाप छोड़ो । ज्ञान का दीपक दिखाकर, भटके को तुम राह देना । मारकर पापी को जग से, झूठे शोक विलाप छोड़ो । बढ़ाके चोटी लगा लंगोटी, मंदिरों के जाप छोड़ो । मिल रही हूरें खुदा खुश, के झूठे ये संताप छोड़ो । कर गुजर गई जो सदी कुछ, उसका पश्चाताप छोड़ो । हर हाथ में डोर नफरत, कहते पहले आप छोड़ो । चंद समुदाय जहां के, हैं टकराए यहां पर । है धार्मिक गुटबाजी, ईश्वर ना मिलते कहां पर । है समावेशी जो सब में, सब उसी को खोजते हैं । ना पता ना है ठिकाना, पढ़ नमाजे भेजते हैं । क्या था लाना तुझे जो, रहे वहीं तेरा गया है । क्या लगा तू खोजने जो , खुद में खोके रह गया है । आज है जन-जन दुखी यहां, अपने सन्मुख दूसरे से । जी रहा तन्हा अकेला, ना जुड़े दूजे सिरे से । अपनी-अपनी हैं व्यथाएं, अपनी-अपनी हैं कथाएं । दुख के आंसू छिपाकर, झूठे सुख में मुस्कुराएं । आओ अब सब संग मिलके, नए तरक्की मार्ग खोजें या गुजरा कल निहारें, फिर वहीं घाव कुरेदें । अब यह कर्तव्य तेरा, कल दिखा या कल बताना । भाग्य अपनी पीढ़ियों का, कर सुनिश्चित तुमको जाना । खेलते जो घर तुम्हारे , गोद में पुचकार लेना इनको विरासत में धरम ना, सिर्फ सच्ची राह देना । ***अचल कुमार सिंह*** ©अचल कुमार सिंह #लौट_आओ_यार #Walk