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मेरी साइकिल मेरी पहली साइकिल की कहानी ऐसी है, कि

मेरी साइकिल  मेरी पहली साइकिल की कहानी ऐसी है, कि वो थोड़ी उधारी ही है। वैसे तो मेरे लिए कभी साइकिल खरीदी ही नहीं गई। लेकिन चलाई मैंने खूब है। हाँ बचपन में बड़ी इच्छा थी कि मेरी भी एक साइकिल हो, लेकिन हो नहीं पाई। खेर बात करते है मेरी साईकल पर तो, मैंने तो साइकिल किराए पर लेकर सीखी थी। वो मेरी पहली साइकिल थी और साइकिल यात्रा भी। तब एक रुपये में आधा घंटा और दो रुपये में पूरा घंटा चलाने को मिलती थी। बाद मुश्किल से एक रुपये जोड़ तो लिए, लेकिन साइकिल चलाने की इच्छा पूरी हो तो कैसे हो आती तो थी नही। उस समय उम्र के हिसाब से छोटी ही मिलती थी बच्चो वाली। लेकिन सीखना तो उसे भी था। साइकिल का मालिक शुरू शुरू में एक पार्क में चलाने की अनुमति देता था। हमने भी जोश में हैंडल पकड़ लिया और पैडल जबतक मारते तब तक गिर पड़े। कई बार ऐसा हुआ, फिर साइकिल का मालिक बोला, इसके पीछे से कोई धक्का लगाओ और इसे पकड़ पकड़कर सिखाओ। इस तरह से हमने गिरते पड़ते पहली साईकल चलाई। तो जनाब जेब खर्ची साइकिल सीखने में ही खर्च हो जाती थी। जिस दिन पैसा नहीं होता था, उस दिन किसी को पीछे से धक्का लगाकर, बदले में 5-10 मिनट चलाने को मिल जाती थी। फिर जैसे जैसे बड़े होते रहे, कभी कोई रिश्तेदार आता तो उसकी साइकिल चलाने के लिए उत्सुकता भरी रहती। चोरी छुपे क्रंची चलाकर बड़ी साईकल पर भी हाथ साफ कर ही लिया। लेकिन अपनी बड़े होते होते भी नहीं हो पाई।

©vishwas #साइकिल_दिवस
#मेरे_शब्दांश 
#nojotohindi 
#WorldBicycleDay2021
मेरी साइकिल  मेरी पहली साइकिल की कहानी ऐसी है, कि वो थोड़ी उधारी ही है। वैसे तो मेरे लिए कभी साइकिल खरीदी ही नहीं गई। लेकिन चलाई मैंने खूब है। हाँ बचपन में बड़ी इच्छा थी कि मेरी भी एक साइकिल हो, लेकिन हो नहीं पाई। खेर बात करते है मेरी साईकल पर तो, मैंने तो साइकिल किराए पर लेकर सीखी थी। वो मेरी पहली साइकिल थी और साइकिल यात्रा भी। तब एक रुपये में आधा घंटा और दो रुपये में पूरा घंटा चलाने को मिलती थी। बाद मुश्किल से एक रुपये जोड़ तो लिए, लेकिन साइकिल चलाने की इच्छा पूरी हो तो कैसे हो आती तो थी नही। उस समय उम्र के हिसाब से छोटी ही मिलती थी बच्चो वाली। लेकिन सीखना तो उसे भी था। साइकिल का मालिक शुरू शुरू में एक पार्क में चलाने की अनुमति देता था। हमने भी जोश में हैंडल पकड़ लिया और पैडल जबतक मारते तब तक गिर पड़े। कई बार ऐसा हुआ, फिर साइकिल का मालिक बोला, इसके पीछे से कोई धक्का लगाओ और इसे पकड़ पकड़कर सिखाओ। इस तरह से हमने गिरते पड़ते पहली साईकल चलाई। तो जनाब जेब खर्ची साइकिल सीखने में ही खर्च हो जाती थी। जिस दिन पैसा नहीं होता था, उस दिन किसी को पीछे से धक्का लगाकर, बदले में 5-10 मिनट चलाने को मिल जाती थी। फिर जैसे जैसे बड़े होते रहे, कभी कोई रिश्तेदार आता तो उसकी साइकिल चलाने के लिए उत्सुकता भरी रहती। चोरी छुपे क्रंची चलाकर बड़ी साईकल पर भी हाथ साफ कर ही लिया। लेकिन अपनी बड़े होते होते भी नहीं हो पाई।

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