चाहने की तुझे मैं सज़ा चाहती हूँ,खुद को जो कसूरवार मानती हूँ। करती हूँ रिहा खुद को तुमसे,चलो तुम्हें बेकसूर मानती हूँ।। चाहत को तुम्हारे नज़र और नज़रिये का फर्क मानती हूँ। नहीं होती इश्क़ में कोई शर्त,ये बखूबी जानती हूँ।। दिया था नाम तुमने जिन रिश्तों को जन्मो का मैं उन जन्मो को मानती हूँ तुम भुला बैठे हो उन्हें,मैं जिन्हें अपना दीन ओ ईमान मानती हूँ।। किया जो गुनाह अपना समझने का तुम्हें,उसे अपनी ख़ता मानती हूँ। थी नहीं रज़ामंदी ख़ुदा की,बस वक़्त को ख़तावार मानती हूँ ।। #yqdidi #चाहत #कसूरवार #रज़ामंदी