जज़्बा शायद मैं थोड़ा थका हूँ, पर हारा तो नहीं हूँ । बेशक़ दूर निकलना छोड़ा हूँ, पर चलना तो नहीं छोड़ा हूँ ।। चलो माना की फ़ासले अक्सर रिश्तों में दूरियाँ कर देते हैं । पर यकीन मानों, मैं अपनों से मिलना तो नहीं छोड़ा हूँ ।। शायद ज़रा सा सहमा जरूर हूँ, पर हिम्मत भी तो नहीं छोड़ा हूँ । इन समन्दर की लहरों से क्या डरना, उफ़नाना भी तो इन्हीं से सीखा हूँ ।। माना की मंजिल अभी कोसों दूर है । पर मंजिल की ओर से रूख़ मोड़ा भी तो नहीं हूँ ।। माना बेशक़ शाम ने अंधेरा होने की दस्तक दे दी है । पर इन अंधेरों से कहना, अभी दीपक जलाना भी तो नहीं भूला हूँ ।। चलो माना ज़िन्दग़ी अभी थोड़ी नाराज़ सी चल रही है । पर ऐ ज़िन्दग़ी, तेरे साथ जीने का जज़्बा भी तो नहीं छोड़ा हूँ ।। राone@उल्फ़त-ए-ज़िन्दग़ी जज़्बा