संशयग्रस्त युधिष्ठिर हुए अब और बेहाल, पुछे इसे कैसे तोड़ना जानते हो तुम, कैसे जानते हो इसका हाल, तभी अभिमन्यु बोला, मैं मां के गर्भ में था आंखों को खोला, पिताजी मां को चक्रव्यूह भेदन बता रहे थे, एक-एक दरवाजे तोड़ते और पार होते जा रहे थे, पिताजी ने छह दरवाजे तोड़ लिया, और सातवें में मां को आंख लग गई, जिससे मैं भी सो गया, और सातवें दरवाजे को, तोड़ने की कथा सुन रह गई, युधिष्ठिर बोले हे पुत्र, मैं तुम्हें युद्ध भूमि में नहीं भेज सकता, आखरी संतान हो तुम हम पांडव की, तुम्हारे बिन कोई पांडव वंश नहीं रह सकता, गरजे चंद्र पुत्र अभिमन्यु तेज प्रताप के साथ, हे काका श्री मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, चक्रव्यूह के छ: दरवाजे सब कुशल तोड़ जाऊंगा, जिससे कौरव होंगे भयभीत, और मैं इससे सातवां दरवाजा भी तोड़ कर आऊंगा, दिया युधिष्ठिर ने अब आयुष्मान भव: का आशीर्वाद, चल पड़े हैं गरज कर युवराज, अभिमन्युअब चक्रव्यूह के पास....!! -Sp"रूपचन्द्र" खण्डकाव्य:चन्द्रपुत्र की तेजशीलता Part-2