आत्मानुभूति 1 जन्म लिया बेटी ने जबकि चाहिए होता है सबको बेटा, बेटी तो पराई होती है, वंश चलाता है परिवार का बेटा; बेटी का बढ़ा थोड़ा मान, उसके बाद जब पैदा हुआ बेटा, बेटी रही इस बात से हमेशा परेशान कि वो क्यूं न हुई बेटा; नन्ही उस बेटी को कोई भी छोटा मालिक नहीं कहता, जबकि नवजात उस बेटे को हर कोई घर का मालिक मानता; हां, मैं भी वैसी ही एक बेटी हूं, उन्हीं कुछ प्रश्नों में उलझी रही हूं, कभी तो बेटा कहलाने की होड़ में लगती, तो कभी खुद को ढूंढती; साधारण से परिवार की एक साधारण सी क्रांतिकारी बेटी हूं, जीवन के हर मोड़ पर स्वयं ही सवाल जवाब करके बड़ी हुई हूं; कई सवालों के जवाब नहीं मिले, कई दिल में दफन होकर रह गए, सवालों के चक्रव्यूह में फंस कई दफा कृष्ण की तलाश में रही हूं; शिक्षा का मतलब समझ नहीं आया कभी मुझे, क्या सीखते कुछ हैं और असल दैनिक जीवन में करते उपयोग कुछ और ही है? उस सीख का मतलब क्या, जो सिर्फ किताबों तक ही सीमित है, उस वैयाकरण के असीमित ज्ञान का क्या, जो उसे उपयोग में लाता नहीं; नशा करने वाले यदि सीखाए कि नशा करना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं, कौन करेगा ऐसी दोहरी नीति वाले शिक्षा पर यूं आंख मूंदकर यकीन; बालपन और यौवन के बीच का वो कुछ पल का किशोरी जीवन, जिसमे ना जाने एक साथ ही कौंध उठे जेहन में कितने ही प्रश्न, जिनका उत्तर किससे मांगू यही निश्चित न कर पाया नादान मन, और उसमे गलती कर बैठी कोई मैं भी ऐसी जिसे मानते सब पतन; अब था एक विकल्प, या तो दूसरों को दवा लिखने की औकात बनाऊं, या फिर बांध दी जाएगी डोर उससे जो भी मिलेगा कोई सज्जन; एक ज़िन्दगी का हुआ इस बिंदु पर समापन, दूसरा हुआ आरम्भ, जिस मैं को ढूंढ़ती रही थी खुद में कभी कभी, अब सब बंद; अब तो सिर्फ और सिर्फ चलना था वैसे जैसे ले चले जीवन, न तो कोई शिकायत थी किसी से और न ही था सपनों का उपवन; कई दफा घबराई, दिल के दर्द से बेचैन होकर खुलकर रोई चिल्लाई, पर अंत में फिर वक्त की हथेली पकड़ बेजान सी आगे बढ़ते गई। ©अनुपम मिश्र #आत्मानुभूति #LightsInHand