मेरा जीवन और ये दुनिया।। मन रोता है, तन रोता है, गर्भ में पलता बचपन रोता है। शिशु, वृद्ध, युवा, वयस्क, जीवन का कण कण रोता है। कौन कहाँ कब सुखी रहा है, किसकी आंखों से आंसू नहीं बहा है। कोई पेट की खातिर लड़ता, कोई धन अपना संजोता है। किसका जहाँ मुक्कमल ठहरा, किसके चाहे सबकुछ होता है। जीवन तो बदली है मानो, कभी गरजता कभी बरसता। ये रेशम का धागा ठहरा, कभी चमकता कभी मसकता। बांध पोटली कौन गया है, कहीं धनवान, कहीं निर्धन रोता है। शिशु, वृद्ध, युवा, वयस्क, जीवन का कण कण रोता है। ये सोना है, ये अमूल्य बड़ा, ना पीतल कोई पानी चढ़ा। जितना जलाओ निखरे उतना, अग्निपरीक्षा का आदि है। इससे तुम क्या मांग रहे, मौत का ये तो फरियादी है। गुलशन का महकता फूल रहा, दे पानी जब सींचोगे। पत्ता पत्ता बिखरा मिलेगा, जो तुम मुट्ठी में भींचोगे। बसंत गया जो पतझड़ आया, खेत है रोता, मधुबन रोता है। शिशु, वृद्ध, युवा, वयस्क, जीवन का कण कण रोता है। मैं सच से मुख क्यूँ मोड़ रहा, क्यूँ दामन उम्मीदों का छोड़ रहा। जो चलता था क्या वही चलेगा, या कलम कभी विद्रोह करेगी। कागज़ के सीने पे शब्द कुरेदेगी, या फिर कागज़ पे ही मोह करेगी। दुविधाओं से पटी है दुनिया, डर का ही तो व्यापार है। मेरे संग अब आये वही, जिसे दुनिया की दरकार है। ठंढी पड़ी आग है देखो, यज्ञकुंड और हवन रोता है। शिशु, वृद्ध, युवा, वयस्क, जीवन का कण कण रोता है। ©रजनीश "स्वछंद" मेरा जीवन और ये दुनिया।। मन रोता है, तन रोता है, गर्भ में पलता बचपन रोता है। शिशु, वृद्ध, युवा, वयस्क, जीवन का कण कण रोता है। कौन कहाँ कब सुखी रहा है,