|| श्री हरि: ||
68 - लहालोट
'धुम्' यह श्यामसुंदर बहुत नटखट है। दबे पैर इस प्रकार आया है जैसे बिल्ली कभी कभी आखेट देखकर सावधानी से चलती है और आते ही सहसा विचित्र स्वर में चिल्ला पड़ता है।
दाऊ आज नीम की शीतल छाया में बैठकर वनश्री देखने में लगा था। गायें चर रहीं हैं बालक उछल-कूद करके थक गये हैं और अब श्रृंगार के लिए कुसुम, किसलय, गुंजादि चयन करने में लगकर वन में बिखर गये हैं। मोहन दिखता नहीं, तो वह भी मयूरपिच्छ या पुष्प लेते गया होगा। दाऊ शिला पर शांत बैठा है। बांये पैर की पालथी मारे और ख़ड़े दाहिने घुटने को दोनों भुजाओं में पकडे। मौलिश्री के सुमन झर रहे हैं उस पर। उसकी अलकों में वे नन्हें पुष्य उलझ गये हैं।
'हैं।' वृंदावन में तो ऐसा शब्द करने वाला कोई पशु-पक्षी अब तक देखा नहीं गया। शब्द न सिंह जैसा है न उलूक जैसा। उलूक की 'घू घू की मूंज और सिंह की दहाड़' दोनों का जैसे मेल हो गया हो। इतना विचित्र शब्द और पीठ के पीछे इतने निकट? दाऊ एकदम चोंककर मुख घुमाकर देखने लगा। #Books