ये द्वैत की नगरी है प्यारे दिन रात चलती तलवार दोधारे। जन्म-मरण दुख-सुख मित्र-वैरी अपने-बेगाने के यहाँ अजब नजारे। दोनों हाथों में लड्डू चाहता है हर कोई माया और राम में हर किसी को दुविधा रे। अपना मन ही पग-पग छलता है जहाँ मझधार में डूबे सब पहुँचा न कोई किनारे। भजन-सिमरन की पतवार बना प्राणी सत्संग-सेवा में लग सुधार जिंदगानी। दुई का चक्कर मिटेगा सतगुरु के सहारे। सतगुरु दया-मेहर से लग जाओगे किनारे। ये द्वैत की नगरी है प्यारे दिन रात चलती तलवार दोधारे। बी डी शर्मा चण्डीगढ़ द्वैत की नगरी