यहाँ हर कोई सही है, सिवा मेरे, यहाँ हर ग़लतियों का मैं इल्ज़ाम लिए बैठा हूँ।। मैं ढूँढ़ रहा था फ़कत सुकूँ हर -तरफ, और न जाने क्यों मैं वक़्त से उम्मीद लगाए बैठा हूँ।। मिलती नहीं है मंज़िल यूँही आजकल,अब रास्तों पर चलते -चलते थककर,मैं हारे बैठा हूँ।। मेरे तकदीर का अब तमाशा अक्सर होता है,मैं अपने अश्कों में अपनी तकलिफें छुपाए बैठा हूँ।। मेरी कश्ती तो पहले से ही डूबी थी तक़लिफों के समंदर में,मैं खामखाँ लहरों को दोषी ठहराए बैठा हूँ।। एक शाम आज फिर ढल गयी मेरे शहर में,मैं फिर एक नयी सुबह का इंतज़ार किए बैठा हूँ।। ©आर्या #writer #इलज़ाम #रास्ते #समंदर