मैं खाबो में ही मुत्मइन रहा तुम हक़ीक़त बन के किसी और कि आरज़ू हो गए समझाया नासमझ को मगर ये ज़िद पे अड़ा रहा एक शाम और हिज्र की देहलीज़ पे खड़ा रहा गवा के तुम्हे जो लौटा मैं घर कई दिनों तक खाली कमरो में तुम्हे तलाशता रहा हक़ीक़त से कभी बनी नही खाबो से पड़ी दोस्ती भारी कुछ यूं भी ज़िन्दगी चली मगर एक ही जगह खड़े रहे कर।। मैं खाबो में ही मुत्मइन रहा तुम हक़ीक़त बन के किसी और कि आरज़ू हो गए समझाया नासमझ को मगर ये ज़िद पे अड़ा रहा एक शाम और हिज्र की देहलीज़ पे खड़ा रहा गवा के तुम्हे जो लौटा मैं घर कई दिनों तक खाली कमरो में तुम्हे तलाशता रहा