मैं इधर था पड़ा ,वो उधर थी खड़ी प्रेम में गोले जैसे हम लुढ़कते रहे इश्क की जीवा,प्रेम का आधार बनी उनकी संगामी रचना में हम ढ़लते रहे !१! वो प्रमेय जैसे हमको सताते रहे हर एक बिंदु पर चाप हम लगाते रहे व्यास की आस थी वो त्रिज्या बने , हम परिधि पर बस चक्कर लगाते रहे !२! जब भी सोचा उन्हें संग जोड़ने को वो लगातार हमे खुद से घटाते रहे , जाने कैसे वो दिन प्रतिदिन दूने हुए हम गुणनखण्ड में ही टूट जाते रहे !३! वो न देखे हमारी तरफ अब कभी , साथ हर बिदु का उनसे निभाते रहे, वो थे हमारे हर केंद्र का केंद्र बिंदु , बस हर डगर डग को उनसे मिलाते रहे ..!४! जब मैं न्यून बना,वो अधिकतम बने कोंण सम्भव दशा से दूर जाते रहे विकर्ण थे मेरी इस जिंदगी का जो उनसे खुद को कई बार हम मिलाते रहे !५! वो अंक बने और मैं बना शून्य सा , वो दशमलव को लगा भूल जाते रहे प्यार के ब्याज का जब बंटवारा हुआ लाभ में वो रहे,हानि को खुद पाते रहे !६! तब सरल कोंण सी थी उनसे नजरें मिली आज समकोण से वो नजरें झुकाते रहे .. मैं बिना लक्ष्य की "राहुल "शब्द रेखा बना बस अनन्त यादें अनन्त तक ले जाते रहे !७! ~~((( गणित की विधा में प्रेम )))~~ मैं इधर था पड़ा ,वो उधर थी खड़ी प्रेम में गोले जैसे हम लुढ़कते रहे इश्क की जीवा,प्रेम का आधार बनी उनकी संगामी रचना में हम ढ़लते रहे !१! वो प्रमेय जैसे हमको सताते रहे हर एक बिंदु पर चाप हम लगाते रहे