सेवा भाव मनुष्य सहित समस्त चराचर जगत के पालक और रक्षक ईश्वर है मनुष्य तथा अन्य जीवों की सेवा करने से हमें ईश्वरीय विधान की अनुपालन में योगदान देते हैं इसलिए सेवा को सभी पंचों में पुण्य कर्म माना जाता है सेवा के लिए प्रेरित का भाव अनिवार्य है सेवा वही सार्थक होगी जो बिना किसी ने छंद है या शर्त से संपन्न की जाए धनसंपदा पद और प्रसिद्ध के उद्देश्य से संपादित कार्य सेवा नहीं आपूर्ति सेवा का नंबर है निष्ठा से स्वयं अर्जित में से एक अंश जरूरतमंद को देना सेवा का मुख्य घटक है वही त्रितन फलीभूत होता है जिस पर वे अब भी अपनी शुद्ध कमाई से किया जाए अनेकता आए या अनुदान से नहीं सर्व कर्मी श्रद्धा और सामर्थ्य अनुसार दूसरे व्यक्ति आस्था को इसकी आवश्यकता या अपेक्षा के अनुसार धन वस्तु सुविधा या सेवा प्रदान करते हैं समर्थ्य वंचित निर्धन की सेवा धनवार आदि देकर तथा माननीय व्यक्ति को उसके प्रयोग की वस्तु प्रदान कर की जा सकती है बेसहारा बच्चों का समरण उनकी शिक्षा या चिकित्सा में सहायता उच्च स्तरीय सेवा है वृद्धजनों की सेवा इतनी भर है कि उन्हें स्वच्छ से साथ रखिए उनका खानपान सुनिश्चित हो उनका अपमान या अपेक्षा ना हो सेवा की प्रक्रिया में सेवा भोगी और उससे अधिक सेवा आदर लव अवंती होते हैं पहले पक्ष को उस आवश्यक सामग्री या सेवा की आपूर्ति होती है जो दूसरे पक्ष के पास आवश्यकता से अतिरिक्त है निम्न सोच के व्यक्ति को सेवा की नहीं सोचती वह इस तुच्छ समझता है कार्य कोई भी छोटा नहीं होता गुरुद्वारे या मंदिर में दूसरों के जूते चमकाने प्रसाद खिलाने या बर्तन भांडे साफ करने से किसी का दर्जा नहीं गिरता सेवा की आड़ में कुछ कारोबारी सेवा का मौका दें घोषणाओं से हित साधते दिखाई देते हैं इस सेवा एक पुनीत मानवीय करते हैं मानव योग से सेवा करने वाला सद्गति को प्राप्त होता है ©Ek villain #Sevanand #motherlove