क्या सोचा था कभी ऐसा भी दौर आएगा जीने को बचपन एक बार और आएगा परिंदे तक न होंगे सड़क ये सुनसान होगी कि बंद गली मोहल्लों की हर दुकान होगी बिना किसी शोर के पंछी ये चहक पाएंगे कि आते जाते झोंके हवा के महक जाएंगे हमेशा जल्दी का इंसान सबर ऐसा रखेगा पहले ज़िंदगी और बाद उसके पैसा रखेगा लोग परिवार के न आपस में तिलमिलाएँगे बच्चे बूढ़े सब बैठ साथ एक खिलखिलाएंगे ज़हन में सबके इस तरह की पैदाइश होगी न जिद न फरमाइश न ही आज़माइश होगी स्कूली दिनों का फिर से एहसास कराने लौटेंगे दूरदर्शन पर धारावाहिक वो पुराने वो सुबह रविवार की फिर घर घर होगी रामायण महाभारत पर आंख हर होगी भूल नेट मोबाईल सामने टीवी के बैठेंगे न दौलत पर न ही शोहरत पर यूं ऐंठेगे छूटकर बड़े छोटे ऊंच नीच के लफड़े से होंगे हम सब ही कुदरत के एक पलड़े पे पर कहते हैं न बस हमारा सब पर कहाँ चलता आज भी उसके इशारे पर जहाँ करिश्मा अपना ऐसा वो दिखा जाता है औकात इंसान की उसको सिखा जाता है #लॉकडाउन 3.0