वो रात जंगल सी थी, लम्बी, घनी, काली रात । सपने जैसे टिमटिमाते जुगनू, मानों जैसे तारों की बारात । डरता हूँ, इस रात को खोने से, टिमटिमाते जुगनूओं के सोने से । रास आ गया मुझे रात का अंधेरा, डरता हूँ, कल फिर सुबह होने से । न ज़माने की ख़बर, न अपना कोई होश । यादों के पत्तों पर, उम्मीदों की ओस । इस ओस सहारे ज़िन्दा हूँ, बूँद-बूँद करके पी रहा हूँ । डरता हूँ, हकीकत की आँधी से, कतरा-कतरा ही तो जी रहा हूँ । "रात"