मर चुका है रावण का शरीर.. स्तब्ध है सारी लंका..सुनसान है किले का परकोटा.. कहीं कोई उत्साह नहीं..किसी घर में नहीं जल रहा है दिया.. विभीषण के घर को छोड़ कर.... सागर के किनारे बैठे हैं विजयी #राम.. विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए...ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक.. बार-बार लक्ष्मण से पूछते हैं..अपने सहयोगियों की कुशल-क्षेम.. चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान ..मन में क्षुब्ध हैं लक्ष्मण.. कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को..अशोक वाटिका से..पर कुछ कह नहीं पाते हैं ...। धीरे-धीरे सिमट जाते हैं सभी कामहो जाता है विभीषण का राज्याभिषेक... और राम प्रवेश करते हैं लंका में..ठहरते हैं एक उच्च भवन में.... भेजते हैं हनुमान को अशोक-वाटिका... यह समाचार देने के लिए...कि मारा गया है रावण..और अब लंकाधिपति हैं विभीषण ...। सीता सुनती हैं इस #समाचार को..और रहती हैं ख़ामोश..कुछ नहीं कहती..बस निहारती है रास्ता.. रावण का वध करते ही...वनवासी राम बन गए हैं सम्राट ?लंका पहुँच कर भी भेजते हैं अपना दूत.. नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता..कैसे रही सीता... ? नयनों से बहती है अश्रुधार...जिसे समझ नहीं पाते हनुमान... कह नहीं पाते वाल्मीकि.... । राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवातीइन परिचारिकाओं से..जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी.. स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान कीवे रावण की अनुचरी तो थीं...पर मेरे लिए माताओं के समान थीं ... राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती..इन अशोक वृक्षों से.. इन माधवी लताओं सेजिन्होंने मेरे आँसुओं को..ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर.. पर राम तो अब राजा हैं..वह कैसे आते सीता को लेने ..?विभीषण करवाते हैं सीता का शृंगार... और पालकी में बिठा कर पहुँचाते है राम के भवन पर..पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है. ..जनक ने भी तो उसे #विदा किया था इसी तरह .. वहीं रोक दो पालकी..गूँजता है राम का स्वर..सीता को पैदल चल कर आने दो मेरे समीप ! ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता..क्या देखना चाहते हैं... मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रह कर..चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ ...? अपमान और उपेक्षा के बोझ से दबी सीता..भूल जाती है पति-मिलन का उत्साह.. खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बन्दिनी की तरह ,कुठाराघात करते हैं राम ---- सीते, कौन होगा वह पुरुष.. जो वर्ष भर पर-पुरुष के घर में रही स्त्री को..करेगा स्वीकार ..? मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, तुम चाहे जहाँ जा सकती हो ..उसने तुम्हें अंक में भर कर उठाया.. और मृत्युपर्यंत तुम्हें देख कर जीता रहा..मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना.. पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह ..वाल्मीकि के नायक तो राम थे.. वे क्यों लिखते सीता का रुदन..और उसकी मनोदशा ...? उन क्षणों में क्या नहीं सोचा होगा सीता ने,कि क्या यह वही पुरुष है.. जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण...क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में.. मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल..और भटकी थी वन-वन ...! हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में..हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन... वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में ,पर रावण पुरुष था... उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया...भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में .. यह सब कहला नहीं सकते थे वाल्मीकि...क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी ... आगे की कथा आप जानते हैं..सीता ने अग्नि-परीक्षा दी.. कवि को कथा समेटने की जल्दी थी..राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए.. नगरवासियों ने दीपावली मनाई..जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए ... आज इस दशहरे की रात..मैं उदास हूँ उस रावण के लिए..जिसकी मर्यादा.. किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी ..मैं उदास हूँ कवि वाल्मीकि के लिए..जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख न सके ... आज इस दशहरे की रात..मैं उदास हूँ स्त्री अस्मिता के लिए.. उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए .. #meena_divakar ©Fahmina Ali #Dussehra