प्रेम, कुछ ऐसा भी करता है... किवाड़ मन के, सब स्रोत ले अपूर्ण, श्वेत से पूर्ण इंद्रधनुष-सा, अवसाद-पीड़ा क्षण में हर कर प्रज्ज्वल, हर्षित मन को करता है। प्रेम, कुछ ऐसा ही करता है... निर्विरोध दास बन बैठे-बैठे माधुर्य अधरों पड़ छिड़क कर अपने अधिकार को मंद-मंद सा उदया नभ पर आभा उद्धृत करता है। प्रेम, प्रत्येक बार जीवित करता है... सुप्त पड़े विवेक, विचार पोषित कर, अभिव्यक्ति सुनिश्चित करने के पश्चात, अजेय विद्यमान स्वयं "सृजन" बनकर, उल्लेख, आभार मानव तन का रखता है। प्रेम, कुछ ऐसा भी करता है... किवाड़ मन के, सब स्रोत ले अपूर्ण, श्वेत से पूर्ण इंद्रधनुष-सा, अवसाद-पीड़ा क्षण में हर कर प्रज्ज्वल, हर्षित मन को करता है। प्रेम, कुछ ऐसा ही करता है... निर्विरोध दास बन बैठे-बैठे माधुर्य अधरों पड़ छिड़क कर