मिलन की आस में अब एक ही राग गुनगुनाती हूँ आखिर इस पूनम का अमावस कब खत्म होगा ( पूरी कविता कैप्शन में पढ़ें ) मिलन की आस में अब एक ही राग गुनगुनाती हूँ इस पूनम का अमावस कब खत्म होगा हर रात चुपके से ताकती हूँ अपने चन्द्र को किसी दिन वो भी तो मुझे देखता होगा चांदनी बिखेरे वो खेलता है बादलों से लुकाछिपी कभी तो इस बंजर दिल मे भी अपनी आभा बिखेरेगा मिलन की आस में अब एक ही राग गुनगुनाती हूँ