बेमौसम बरसात ये बेरुखी लगती है कुदरत की ये कोई नाखुशी लगती है। यहां सब मार रहे अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी, इंसानी करामात अब सब खुदकुशी लगती है। हर कोई दे रहा चुनौती फरिश्तों को, शिकन में हर किसी की पेशानी लगती है। मौत बिक रही यूं खुलेआम सड़कों पर, बड़ी मामूली सी ये जिंदगी लगती है। रोता था कभी पिजरें में बंद वो परिंदा भी, आज उसकी हर उड़ान आसमानी लगती है। उड़ रहा है इस कदर माखौल आजादी का, आजादी से अच्छी अब गुलामी लगती है। कुदरत कर रही है फिर से तैयार खुद को, आज सारी नामचीनी बेनामी लगती है। वक़्त है संभल जाओ ऐ इंसानों, ये बवा नहीं कोई चेतावनी लगती है। बेमौसम बरसात ये बेरुखी लगती है, कुदरत की ये कोई नाखुशी लगती है। पेशानी - माथा, बवा - बीमारी #बेमौसम बरसात #कुदरत का कहर